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हिर॑ण्यकर्णं मणिग्रीव॒मर्ण॒स्तन्नो॒ विश्वे॑ वरिवस्यन्तु दे॒वाः। अ॒र्यो गिर॑: स॒द्य आ ज॒ग्मुषी॒रोस्राश्चा॑कन्तू॒भये॑ष्व॒स्मे ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

hiraṇyakarṇam maṇigrīvam arṇas tan no viśve varivasyantu devāḥ | aryo giraḥ sadya ā jagmuṣīr osrāś cākantūbhayeṣv asme ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

हिर॑ण्यऽकर्णम्। म॒णि॒ऽग्री॒व॒म्। अर्णः॑। तम्। नः॒। विश्वे॑। व॒रि॒व॒स्य॒न्तु॒। दे॒वाः। अ॒र्यः। गिरः॑। स॒द्यः। आ। ज॒ग्मुषीः॑। आ। उ॒स्राः। चा॒क॒न्तु॒। उ॒भये॑षु। अ॒स्मे इति॑ ॥ १.१२२.१४

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:122» मन्त्र:14 | अष्टक:2» अध्याय:1» वर्ग:3» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:18» मन्त्र:14


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - जो (विश्वे, देवाः) समस्त विद्वान् (नः) हम लोगों के लिये (जग्मुषीः) प्राप्त होने योग्य (गिरः) वाणियों की (सद्यः) शीघ्र (आ, चाकन्तु) अच्छे प्रकार कामना करें वा (उभयेषु) अपने और दूसरों के निमित्त तथा (अस्मे) हम लोगों में जो (अर्णः) अच्छा बना हुआ जल है उसकी कामना करें और जो (अर्यः) वैश्य प्राप्त होने योग्य सब देश, भाषाओं और (उस्राः) गौओं की कामना करे उस (हिरण्यकर्णम्) कानों में कुण्डल और (मणिग्रीवम्) गले में मणियों को पहिने हुए वैश्य को (तत्) तथा उस उक्त व्यवहार और हम लोगों की (आ, वरिवस्यन्तु) अच्छे प्रकार सेवा करें, उन सबकी हम लोग प्रतिष्ठा करावें ॥ १४ ॥
भावार्थभाषाः - जो विद्वान् मनुष्य वा विदुषी पण्डिता स्त्री लड़के-लड़कियों को शीघ्र विद्वान् और विदुषी करते वा जो वणियें सब देशों की भाषाओं को जानके देश-देशान्तर और द्वीप-द्वीपान्तर से धन को लाख ऐश्वर्ययुक्त होते हैं, वे सबको सब प्रकारों से सत्कार करने योग्य हैं ॥ १४ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

ये विश्वे देवा नो जग्मुषीर्गिरस्सद्य आचकन्तूभयेष्वस्मे च यदर्णः कामयेरन् योऽर्यो जग्मुषीर्गिर उस्राश्च कामयते तं हिरण्यकर्णं मणिग्रीवं तदस्मांश्चावरिवस्यन्तु तानेतान् कर्णं प्रतिष्ठापयेम ॥ १४ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (हिरण्यकर्णम्) हिरण्यं कर्णे यस्य तम् (मणिग्रीवम्) मणयो ग्रीवायां यस्य तम् (अर्णः) सुसंस्कृतमुदकम् (तत्) (नः) अस्मभ्यम् (विश्वे) अखिलाः (वरिवस्यन्तु) सेवन्ताम् (देवाः) विद्वांसः (अर्य्यः) वैश्यः (गिरः) सर्वदेशभाषाः (सद्यः) तूर्णम् (आ) (जग्मुषीः) प्राप्तुं योग्याः (आ) (उस्राः) गावः (चाकन्तु) कामयन्तु (उभयेषु) स्वेष्वन्येषु च (अस्मे) अस्मासु ॥ १४ ॥
भावार्थभाषाः - ये विद्वांसो याश्च विदुष्यस्तनयान् दुहितरश्च सद्यो विदुषो विदुषीश्च कुर्वन्ति। ये वणिग्जनाः सकलदेशभाषा विज्ञाय देशदेशान्तराद्द्वीपद्वीपान्तराच्च धनमाहृत्य श्रीमन्तो भवन्ति ते सर्वैः सर्वथा सत्कर्त्तव्याः ॥ १४ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे विद्वान व विदुषी मुलामुलींना विद्वान व विदुषी करतात किंवा जे वैश्य सर्व देशांच्या भाषा जाणून देशदेशान्तरी द्वीपद्वोपान्तरी जाऊन धन आणून ऐश्वर्ययुक्त होतात त्यांचा सर्वांनी सत्कार करावा असे ते असतात. ॥ १४ ॥